कविता: मुर्खता का आभास
सुर्य अस्त हुआ,
चाँद.तारों का आगमन हुआ,
तब
रात्रि आभास हुआ।
जा रहा था सोने,
मन में कुछ खटका,
कहीं
कुछ भूल रहा हूँ,
तब
इधर उधर देखा,
दरवाजा खुलने का आभास हुआ।
ये मेरा वहम था,
या कुछ और,
झट से खाट से उठा,
बढा दरवाजे की ओर,
देखा दरवाजा बन्द,
तब
हल्की ठंडी हवा का आभास हुआ।
मैं परेशान सोच रहा था,
हल्की ठंडी हवा का प्रवेश,
आखिर कहाँ से हुआ,
कुछ देर सोचते सोचते,
मन विचलित हुआ,
कहीं कोई आत्मा तो नहीं,
तुरन्त
बिजली चली गयी
तब
डर का आभास हुआ।
मैं
जैसे तैसे खाट के पास आया,
लेकिन
डर की तीव्रता बढ़ती जा रही,
मन में,
तरहें तरहें के विचार घूमने लगे,
क्या कँरु,
कैसे कँरु,
कुछ समझ नहीं आ रहा था,
तब
चादर तान कर लेट गया,
और
भगवान को याद करने लगा,
फिर
पता ही नहीं,
कब मेरी आँख लग गई,
लेकिन जब
हल्की रोशनी पडी,
नींद से जागा,
लेकिन फिर भी,
मन में था सन्देह,
कहीं कोई
आत्मा का खेल तो नहीं,
फिर भी
डरते डरते चादर को हटाया,
देखा
सुर्य की किरणो को,
रोशन दान से आते हुये,
तब मुझे,
अपनी मुर्खता का आभास हुआ।।
लेखक.ज्ञान प्रकाश
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